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क्या प्रधानमंत्री की विदेश यात्राएं सिर्फ़ महंगी सैर हैं या भारत को इनसे  मिल भी रहा है कुछ फ़ायदा?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश यात्राएं हमेशा सुर्खियों में रही हैं – कभी उनके भव्य स्वागत के लिए, तो कभी उनकी आलोचना के लिए. हाल ही में, इन यात्राओं पर होने वाले भारी-भरकम खर्च और उनके कथित ‘कम’ परिणामों को लेकर बहस एक बार फिर तेज़ हो गई है. विशेषकर तब, जब भारत में 80 करोड़ लोग मुफ्त राशन पर निर्भर हैं, ऐसे में ये खर्चीली यात्राएं कितना जायज़ हैं, यह एक बड़ा सवाल है.


खर्च बनाम परिणाम: क्या भारत को मिल रहा है पूरा लाभ?
प्रधानमंत्री के विदेश दौरों पर होने वाले खर्च का आंकड़ा अक्सर चौंकाने वाला होता है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, इन यात्राओं पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं. हाल ही में विदेश मंत्रालय द्वारा संसद में दिए गए आंकड़ों के अनुसार, 2021 से 2025 के बीच (जुलाई 2025 तक) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 33 विदेश यात्राओं पर कुल ₹362 करोड़ रुपये से अधिक खर्च किए गए हैं। यह आंकड़ा प्रधानमंत्री की मौजूदा ब्रिटेन और मालदीव यात्राओं के खर्च और कुछ अधूरे बिलों को छोड़कर है।
वर्षवार खर्च का ब्यौरा कुछ इस प्रकार है:

  • 2025 (जुलाई तक): अब तक की पांच देशों (फ्रांस, अमेरिका, सऊदी अरब, थाईलैंड, श्रीलंका) की यात्राओं पर करीब ₹67 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं। इसमें फ्रांस की यात्रा सबसे महंगी रही, जिस पर ₹25.5 करोड़ खर्च हुए।
  • 2024: कुल 11 विदेश यात्राओं (17 देशों का दौरा शामिल) पर ₹109.5 करोड़ रुपये खर्च हुए।
  • 2023: छह विदेश दौरों (11 देशों का दौरा शामिल) पर ₹93.6 करोड़ रुपये खर्च हुए। इसमें जापान पर ₹17.1 करोड़, अमेरिका पर ₹22.8 करोड़ और फ्रांस पर ₹13.74 करोड़ खर्च हुए।
  • 2021 व 2022: इन दो वर्षों में 10 विदेश यात्राओं (14 देशों का दौरा शामिल) पर कुल ₹90 करोड़ रुपये से अधिक खर्च हुए। 2021 में अमेरिका केअमेरिका के दौरे पर ₹19 करोड़ से अधिक खर्च हुए थे।

आलोचकों का तर्क है कि ये यात्राएं अक्सर छोटे और रणनीतिक रूप से कम महत्वपूर्ण देशों तक भी पहुँचती हैं, जहां प्रधानमंत्री स्तर के दौरे की शायद उतनी आवश्यकता नहीं होती. सवाल यह उठता है कि क्या इन यात्राओं से भारत को उतना ठोस आर्थिक या रणनीतिक लाभ मिल रहा है, जितना खर्च किया जा रहा है?


उदाहरण के लिए, जब 80 करोड़ भारतीयों को अपनी बुनियादी ज़रूरतों के लिए सरकारी सहायता पर निर्भर रहना पड़ रहा है, तब करोड़ों की महंगी होटलों, विशेष उड़ानों और बड़े प्रतिनिधिमंडलों पर होने वाला खर्च जनता के मन में कई सवाल खड़े करता है. क्या ये यात्राएं वास्तव में “भारत को वैश्विक मंच पर स्थापित करने” के दावे को सही ठहराती हैं, या सिर्फ एक महंगी पीआर कसरत हैं?


प्रेस कॉन्फ्रेंस से दूरी: पारदर्शिता पर उठते सवाल
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी हर विदेश यात्रा के बाद विमान में ही प्रेस कॉन्फ्रेंस कर दौरे का ब्यौरा देते थे. लेकिन, वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में प्रेस कॉन्फ्रेंस एक दुर्लभ घटना बन गई है, खासकर विदेश यात्राओं के बाद. पारदर्शिता की कमी को लेकर भी सवाल उठाए जाते हैं. जब देश का मुखिया विदेश से लौटता है, तो जनता को यह जानने का पूरा हक है कि इन यात्राओं से देश को क्या मिला, कौन से समझौते हुए और उनका भविष्य में क्या प्रभाव पड़ेगा. प्रेस कॉन्फ्रेंस से दूरी, कहीं न कहीं, सरकार की जवाबदेही पर प्रश्नचिह्न लगाती है.


छोटे देशों में दौरे: क्या है मंशा?
यह भी देखा गया है कि प्रधानमंत्री मोदी ने कई ऐसे छोटे देशों का दौरा किया है, जहां पूर्व में प्रधानमंत्री स्तर के दौरे कम ही होते थे. जबकि सरकार इसे “गुटनिरपेक्षता” और “छोटे राष्ट्रों के साथ संबंधों को मजबूत करने” के रूप में पेश करती है, आलोचक इसे केवल “रिकॉर्ड बनाने” या “अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने” के प्रयास के रूप में देखते हैं, जिसका वास्तविक लाभ भारत को कम ही मिलता है. क्या इन यात्राओं का फोकस व्यापार, निवेश या रणनीतिक साझेदारी पर होता है, या केवल प्रतीकात्मकता पर?


यात्राओं के बाद अदानी को प्रोजेक्ट: संयोग या सुनियोजित रणनीति?
एक और पहलू जो इन विदेश यात्राओं को लेकर सवाल खड़े करता है, वह है प्रधानमंत्री की यात्रा के कुछ समय बाद ही गौतम अदानी के नेतृत्व वाले अदानी समूह को उन देशों में बड़े प्रोजेक्ट्स मिलना। आलोचकों का मानना है कि यह केवल एक संयोग नहीं हो सकता। कई उदाहरण ऐसे हैं जहां प्रधानमंत्री की किसी देश की यात्रा के तुरंत बाद अदानी समूह को बंदरगाह, ऊर्जा या अन्य बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के ठेके मिले हैं।


यह स्थिति इस बहस को और गरमा देती है कि क्या इन यात्राओं का प्राथमिक उद्देश्य भारत के रणनीतिक हितों को साधना है, या कुछ चुनिंदा कॉरपोरेट्स के व्यापारिक हितों को बढ़ावा देना भी है? सरकार अक्सर इसे ‘व्यवसाय को आसान बनाने’ और ‘भारत के निवेश को बढ़ावा देने’ के रूप में सही ठहराती है, लेकिन पारदर्शिता की कमी और ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ के आरोप अक्सर ऐसे में तेज़ हो जाते हैं। जब देश की अर्थव्यवस्था चुनौतियों का सामना कर रही हो और आम जनता महंगाई से जूझ रही हो, ऐसे में कुछ ही व्यावसायिक घरानों को लगातार लाभ मिलना संदेह पैदा करता है।


‘ऑपरेशन सिंदूर’ और वैश्विक सहयोग: कहाँ खड़ा है भारत?
हाल ही में हुए ‘ऑपरेशन सिंदूर’ जैसे महत्वपूर्ण सैन्य अभियान के दौरान भारत को मिले वैश्विक सहयोग का स्तर भी प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं की प्रभावशीलता पर सवाल उठाता है। ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के जवाब में एक निर्णायक कार्रवाई थी, जिसका उद्देश्य सीमा पार से होने वाले आतंकी ढांचों को ध्वस्त करना था।


हालांकि, भारत सरकार ने वैश्विक समुदाय को आतंकवाद के खतरे और अपनी जवाबी कार्रवाई के औचित्य के बारे में लगातार अवगत कराया है, फिर भी कुछ विश्लेषकों का मानना है कि इस तरह के महत्वपूर्ण समय पर, भारत को अपने प्रमुख वैश्विक साझेदारों से जितना खुला और स्पष्ट समर्थन मिलना चाहिए था, वह अपेक्षित स्तर पर नहीं मिला। कई देशों ने ‘संयम’ बरतने की सामान्य अपील की, जबकि कुछ ने सीधे तौर पर भारत के पक्ष में खड़े होने से परहेज किया। यह स्थिति तब और विचारणीय हो जाती है जब प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं का एक मुख्य लक्ष्य ‘भारत की वैश्विक स्थिति को मजबूत करना’ और ‘अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का विश्वास हासिल करना’ बताया जाता है। यदि इतने महत्वपूर्ण सैन्य अभियान के दौरान भी कुछ प्रमुख देश स्पष्ट रूप से भारत का समर्थन नहीं करते, तो क्या यह प्रश्न नहीं उठता कि इन महंगी यात्राओं से प्राप्त ‘वैश्विक मित्रता’ कितनी गहरी है?


आगे की राह: संतुलन और पारदर्शिता की आवश्यकता
इसमें कोई दो राय नहीं कि अंतर्राष्ट्रीय संबंध और वैश्विक मंच पर भारत की उपस्थिति महत्वपूर्ण है. लेकिन, इन यात्राओं के खर्च और उनसे मिलने वाले ठोस परिणामों के बीच संतुलन स्थापित करना आवश्यक है. जनता के पैसे का सही उपयोग और प्रत्येक यात्रा से प्राप्त होने वाले लाभ का स्पष्टीकरण बेहद ज़रूरी है.


सरकार को इन यात्राओं के औचित्य, उनसे प्राप्त होने वाले परिणामों और भविष्य की योजनाओं को लेकर अधिक पारदर्शी होना चाहिए. पूर्व प्रधानमंत्रियों की तरह, प्रेस कॉन्फ्रेंस के माध्यम से जनता और मीडिया के सवालों का सामना करना, लोकतंत्र के लिए स्वस्थ परंपरा है.
अंततः, सवाल यह नहीं है कि प्रधानमंत्री विदेश यात्राएं करें या नहीं, बल्कि यह है कि क्या ये यात्राएं वास्तव में भारत के लिए उतना ही महत्वपूर्ण लाभ ला रही हैं, जितना उन पर खर्च हो रहा है? और क्या इन यात्राओं का लाभ समाज के सभी वर्गों तक पहुँच रहा है, या केवल कुछ ही हाथों में सिमट कर रह गया है?

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