
प्रशांत सिंह राजपूत की यह कविता, “उड़ गए हैं परिंदे अब कमाने को,” आज के दौर के हर उस नौजवान की आवाज़ है जो अपने सपनों को पूरा करने और परिवार का सहारा बनने के लिए घर-बार छोड़कर दूर शहरों में अपनी ज़िंदगी खपा रहा है। यह सिर्फ एक कविता नहीं, बल्कि एक दर्पण है जो युवाओं के संघर्ष, त्याग और उनकी भावनाओं को सच्चाई के साथ दर्शाता है।
उड़ गए हैं परिंदे अब कमाने को-
घर छोड़ कर उड़ गए हैं परिंदे अब कमाने को
ख़ुद की ताक़त आज़माने को
सुकून छोड़ दिया है सुकून पाने को
घर छोड़ कर उड़ गए हैं परिंदे अब कमाने को
सो जाते हैं गीला तकिया लिए ये रातों को
रख लेते हैं झूठी मुस्कराहट चेहरे पर, ये दुनिया को दिखाने को
ऐसा नहीं कि इन्हें कोई ग़म नहीं,
बात बस इतनी है कि ये आँसू माँ-बाप को दिखाने का दम नहीं
साँस लें कैसे, ये दुनिया के ताने हैं ना रुलाने को
घर छोड़ कर उड़ गए हैं परिंदे अब कमाने को
नौकरी में मिल जाते हैं पैसे कुछ चार,
उसके बदले मिल जाती हैं गालियाँ हज़ार
जो ना सुनते कभी किसी की,
अब वो बात-बात पर सर झुकाते हैं
खुश हैं कहकर घर वालों से, ये अपना दर्द छुपाते
हैं,
कभी जो जानना हो दर्द इनका तो लगाना गले से,
ज़ुबान तो नहीं पर इनकी धड़कन है सच बताने को
घर छोड़ कर अब उड़ गए हैं परिंदे अब कमाने को
घर भेज देते हैं पैसे ये चार घर चलाने को
फिर उन्हीं से सुन लेते हैं नाकामयाबी के ताने
सबको पड़ी है अपनी-अपनी, कौन यहाँ किसी का दर्द जाने
जिन्हें मिल जाती वो माँ के हाथों की रोटी सुकून से
आज मजबूर हैं सूखी रोटी खाने को
घर छोड़ कर उड़ गए हैं परिंदे अब कमाने को..
कविता का भावार्थ: एक युवा के मन की बात
राजपूत जी अपनी कविता में उन “परिंदों” की बात करते हैं जो अपने घोंसलों (घरों) को छोड़कर, अपनी क्षमताओं को आज़माने और ‘सुकून’ पाने की चाह में बाहर निकल पड़े हैं। वे रातों को गीले तकियों पर सिर रखकर सोते हैं, अपनी आँखों में आँसू लिए, लेकिन चेहरे पर झूठी मुस्कान सजाए रखते हैं ताकि दुनिया को उनके ग़म का अंदाज़ा न हो। माँ-बाप को अपनी कमज़ोरी न दिखे, इसलिए वे अपने आँसुओं को छिपा लेते हैं।
नौकरी में मिलने वाले चंद पैसों के बदले उन्हें हज़ारों गालियाँ और अपमान सहना पड़ता है। जो कभी किसी की नहीं सुनते थे, अब हर बात पर अपना सर झुकाते हैं। वे घर वालों को ‘खुश’ होने का नाटक करके अपना दर्द छुपाते हैं। राजपूत जी कहते हैं कि अगर कभी उनका दर्द जानना हो, तो उन्हें गले लगाओ; उनकी ज़ुबान भले ही कुछ न कहे, लेकिन धड़कनें सच बता देंगी।
सबसे मार्मिक क्षण तब आता है जब वे बड़ी मेहनत से कमाए गए पैसे घर भेजते हैं, लेकिन बदले में उन्हें अपनी “नाकामयाबी” के ताने सुनने को मिलते हैं। हर कोई अपनी धुन में मगन है, कोई किसी का दर्द नहीं जानता। जिन युवाओं ने कभी माँ के हाथ की बनी रोटी सुकून से खाई थी, आज वे सूखी रोटी खाने को मजबूर हैं। यह कविता उन सभी अनकहे त्यागों और भावनाओं का सशक्त चित्रण है जो एक युवा अपने भीतर समेटे रहता है।
प्रशांत सिंह राजपूत: एक संवेदनशील कवि और सामाजिक कार्यकर्ता
प्रशांत सिंह राजपूत सिर्फ एक कवि ही नहीं, बल्कि एक सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं। वे “पायल एक नया सवेरा वेलफेयर फाउंडेशन” के उपाध्यक्ष हैं। उनकी यह भूमिका उनके लेखन में साफ झलकती है। वे समाज के उन पहलुओं और आवाज़ों को सामने लाने का काम करते हैं, जिन पर अक्सर ध्यान नहीं दिया जाता। उनकी कविताएँ भावनाओं से भरी होती हैं और पाठकों को सोचने पर मजबूर करती हैं।
“उड़ गए हैं परिंदे” कविता इस बात का प्रमाण है कि प्रशांत सिंह राजपूत में गहरी संवेदनशीलता और समाज के प्रति जागरूकता है। वे शब्दों के माध्यम से उन लाखों युवाओं के दर्द को आवाज़ देते हैं जो चुपचाप अपने सपनों और परिवार के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
यह कविता उन सभी माता-पिता और समाज के लोगों के लिए एक संदेश है कि वे अपने बच्चों के संघर्षों को समझें और उन्हें भावनात्मक सहारा दें, क्योंकि सफलता की राह में हर कदम पर चुनौतियाँ होती हैं। यह युवा शक्ति का त्याग और समर्पण ही है जो देश को आगे बढ़ा रहा है।