क्या आपने कभी सोचा था कि छत्तीसगढ़ की सड़कें भी राजनीति का अखाड़ा बन सकती हैं? नहीं ना? लेकिन हमारे उपमुख्यमंत्री विजय शर्मा जी ने ऐसा कर दिखाया है! इन दिनों छत्तीसगढ़ में सड़कों की हालत (जो अक्सर सवालों के घेरे में रहती है) पर एक ऐसी अनोखी बहस छिड़ गई है, जिसमें सड़क और सियासत, दोनों एक साथ चल रहे हैं।


ऐसे शुरू हुआ ‘नंबर गेम’!
कहानी शुरू हुई, जब उपमुख्यमंत्री विजय शर्मा ने बड़े काम की बात करते हुए घुसपैठियों की जानकारी देने के लिए एक टोल-फ्री नंबर जारी किया। अब जनता ठहरी जागरूक! एक ट्विटर यूज़र ने पूछा, “सर, सड़क खराब हो तो कहाँ शिकायत करें?”
बस फिर क्या था! उपमुख्यमंत्री जी ने भी मौके का फायदा उठाया और चट से ट्वीट कर दिया। किसे टैग किया? किसे कोट किया? अरे भाई, सीधा-सीधा हमारे पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल जी का मोबाइल नंबर ही सार्वजनिक कर दिया! साथ में लिखा, “ये उन्हीं की देन हैं, उनसे संपर्क करें।”
भूपेश बघेल का पलटवार: ‘इस्तीफा दे दो!’
पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल भला चुप रहने वालों में से कहाँ! उन्होंने भी तुरंत मोर्चा संभाला और पलटवार करते हुए कहा, “अगर इनसे काम नहीं हो रहा है, तो इन्हें और पूरी भाजपा सरकार को इस्तीफा दे देना चाहिए।” भैया, बात तो सही है! अब जनता के बीच नंबर की अदला-बदली चल रही है, लेकिन सड़कों का क्या होगा?
सड़क पर संग्राम: कौन बनेगा ‘सड़क सुधार’ का हीरो?
अब यह ‘नंबर गेम’ सोशल मीडिया पर आग की तरह फैल चुका है। कहीं मीम्स बन रहे हैं, तो कहीं जनता अपनी-अपनी राय दे रही है। एक तरफ उपमुख्यमंत्री जी ‘पूर्ववर्ती सरकार की देन’ बताकर पल्ला झाड़ रहे हैं, तो दूसरी तरफ पूर्व मुख्यमंत्री ‘इस्तीफा’ मांगने पर अड़े हैं।
सड़कों पर सियासी संग्राम: जनता का नुकसान
छत्तीसगढ़ में उपमुख्यमंत्री विजय शर्मा और पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के बीच खराब सड़कों को लेकर छिड़ा “नंबर गेम” सोशल मीडिया पर भले ही मनोरंजक लग रहा हो, लेकिन इसका सीधा नुकसान आम जनता को भुगतना पड़ता है। यह राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप विकास कार्यों को धीमा कर देते हैं, जिससे सड़कों के सुधार में अनावश्यक देरी होती है और नागरिक खराब सड़कों, दुर्घटनाओं के बढ़ते जोखिम तथा आवागमन में होने वाली परेशानी से जूझते रहते हैं। इस तरह की बयानबाजी से न केवल सरकार की जवाबदेही कम होती है, बल्कि जनता में भी निराशा और अविश्वास पनपता है, क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके प्रतिनिधि समस्याओं के समाधान के बजाय राजनीतिक स्कोरिंग में व्यस्त हैं। अंततः, यह सियासी बयानबाजी समय और संसाधनों का अपव्यय है, जो जनता के वास्तविक हितों को दरकिनार कर देती है।