छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: POCSO एक्ट में सज़ा को लेकर अहम बदलाव!

दिल्ली: भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम (POCSO Act) के तहत सुनाई गई सज़ा को लेकर एक बेहद महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। इस फैसले ने न केवल एक दोषी की सज़ा में बदलाव किया है, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 20(1) के तहत ‘पूर्वव्यापी कानून’ (Retrospective Law) के खिलाफ संरक्षण के मौलिक सिद्धांत को भी मजबूती प्रदान की है। यह फैसला उन सभी मामलों के लिए एक नज़ीर बनेगा जहां कानून में हुए बदलावों का असर पुराने अपराधों पर पड़ता है।
क्या था मामला?
सताऊ राम मांडवी बनाम छत्तीसगढ़ राज्य का यह पूरा मामला छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के एक फैसले से जुड़ा है, जिसमें एक व्यक्ति को POCSO अधिनियम की धारा 6 और भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 376AB के तहत दोषी ठहराया गया था। दोषी को निचली अदालत ने “उसके शेष प्राकृतिक जीवन के लिए कारावास” की सज़ा सुनाई थी, जिसे हाईकोर्ट ने भी बरकरार रखा।
यह घटना 20 मई, 2019 को छत्तीसगढ़ के कोंडागांव में हुई थी। 5 साल की मासूम बच्ची के पिता ने शिकायत दर्ज कराई थी कि उनकी बेटी को अपीलकर्ता ने फुसलाकर उसके साथ बलात्कार किया। इस जघन्य अपराध ने पूरे इलाके को स्तब्ध कर दिया था।
सज़ा पर सवाल: पुराना या नया कानून?
सुप्रीम कोर्ट में अपीलकर्ता ने अपनी दोषसिद्धि को चुनौती नहीं दी, बल्कि सज़ा के बिंदु पर आपत्ति उठाई। उसका मुख्य तर्क यह था कि घटना 20 मई, 2019 को हुई थी, जबकि POCSO अधिनियम में संशोधन 16 अगस्त, 2019 को लागू हुआ था। इस संशोधन ने न्यूनतम सज़ा को 10 साल से बढ़ाकर 20 साल कर दिया था और “आजीवन कारावास” की परिभाषा को “शेष प्राकृतिक जीवन के लिए कारावास” में बदल दिया था।
अपीलकर्ता का कहना था कि चूंकि अपराध संशोधन से पहले हुआ था, इसलिए उस पर संशोधित (और कड़ी) सज़ा लागू नहीं होनी चाहिए। निचली अदालत और हाईकोर्ट ने नए, सख्त प्रावधानों के तहत सज़ा सुनाई थी।
संविधान का कवच: अनुच्छेद 20(1) की शक्ति
सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क में दम पाया। न्यायालय ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 20(1) का हवाला दिया, जो यह स्पष्ट करता है कि किसी भी व्यक्ति को उस कानून के तहत दंडित नहीं किया जा सकता जो अपराध के समय लागू नहीं था, और न ही उसे उस समय लागू कानून द्वारा अनुमत सज़ा से अधिक दंड दिया जा सकता है।
न्यायालय ने कहा कि “शेष प्राकृतिक जीवन के लिए कारावास” की सज़ा का प्रावधान 20 मई, 2019 को लागू नहीं था। उस समय, POCSO अधिनियम की धारा 6 के तहत अधिकतम सज़ा “आजीवन कारावास” थी, जिसका अर्थ पारंपरिक आजीवन कारावास था, न कि दोषी के पूरे जीवनकाल तक कारावास।
सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला: सज़ा में बदलाव, न्याय कायम
अपने ऐतिहासिक फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने अपीलकर्ता की दोषसिद्धि को बरकरार रखा, यह मानते हुए कि उसने अपराध किया था। हालांकि, सज़ा के मामले में, न्यायालय ने निचली अदालतों के फैसले को संशोधित कर दिया।
अदालत ने “शेष प्राकृतिक जीवन के लिए कारावास” की सज़ा को रद्द कर दिया और इसके बजाय, अपीलकर्ता को “कठोर आजीवन कारावास” की सज़ा सुनाई, जैसा कि POCSO अधिनियम के असंशोधित प्रावधानों के तहत होता था। 10,000 रुपये का जुर्माना बरकरार रखा गया।
एक महत्वपूर्ण मिसाल
यह फैसला न केवल अपीलकर्ता को संवैधानिक संरक्षण प्रदान करता है, बल्कि यह भी स्थापित करता है कि आपराधिक कानूनों में बदलाव, खासकर वे जो सज़ा को बढ़ाते हैं, उन्हें पिछली तारीख से लागू नहीं किया जा सकता। यह भारतीय न्याय प्रणाली में निष्पक्षता और संवैधानिक सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्धता को दोहराता है। यह उन सभी के लिए एक महत्वपूर्ण मिसाल है जो कानून के शासन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बीच संतुलन स्थापित करने में विश्वास रखते हैं।
यह फैसला कानूनी बिरादरी और आम जनता दोनों के लिए एक महत्वपूर्ण सीख है।