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पुतला दहन का अनोखा खेल,ख़ालिस राजनीति या विशुद्ध तमाशा..

आज दोपहर  छत्तीसगढ़ में  पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के निवास पर ईडी के  छापे के विरोध में कांग्रेसी कार्यकर्ता केंद्र सरकार यानी मोदी जी और अमित शाह का पुतला दहन करने वाले हैं!

फाइल फोटो

अब ये पुतला दहन भी अपने आप में एक कला है. पहले पुतला बनाओ, फिर उसे सजाओ-धजाओ, फिर उसे कंधे पर रखकर सड़कों पर घूमो और आखिर में उसे जला दो. ये सब देखकर लगता है, जैसे हर पार्टी की अपनी एक ‘होली’ होती है, जिसमें रंगों की जगह विरोध की आग होती है और गुलाल की जगह जलते हुए पुतले की राख!
सोचिए जरा, हमारे नेता भी कितने महान हैं! एक तरफ सरकारें जनकल्याणकारी योजनाओं की बात करती हैं, वहीं दूसरी तरफ विपक्ष में आते ही उनका काम केवल पुतले जलाना रह जाता है. ऐसा लगता है जैसे इनके पास कोई ‘पुतला दहन कोटा’ होता है, जिसे पूरा करना ही होता है. अगर किसी महीने पुतला नहीं जलाया, तो शायद इनकी राजनीतिक ‘किडनी’ में स्टोन हो जाए!

इस सब में सबसे ज्यादा अगर कोई पिसता है, तो वो है हमारी पुलिस! बेचारे पुलिस वाले! सुबह से शाम तक ट्रैफिक संभालो, चोरी-चकारी रोको, और फिर नेताओं के पुतला दहन कार्यक्रम में सुरक्षा भी दो। कभी-कभी तो  लगता है, पुलिस वालों को पुतला दहन के लिए ‘विशेष भत्ता’ मिलना चाहिए. आखिर पुतले की आग बुझाने से लेकर, जलते पुतले को लेकर भागते हुवे  धुएं में नेताओं के भाषण सुनने तक, सब करना पड़ता है! ऐसा लगता है जैसे उनके जॉब डिस्क्रिप्शन में लिखा हो: “कानून-व्यवस्था बनाए रखें, और हां, नेताओं के मनोरंजन के लिए पुतला दहन की व्यवस्था भी करें!”

पुतला दहन का सामाजिक प्रभाव सिर्फ सड़कों पर दिखने वाला ड्रामा नहीं होता, बल्कि इसके कई सकारात्मक और नकारात्मक पहलू भी हैं:
सकारात्मक प्रभाव:

  • विरोध का प्रतीक: पुतला दहन विरोध का एक दृश्य और शक्तिशाली प्रतीक है. यह जनता को, विशेषकर हाशिए पर पड़े लोगों को, अपनी असहमति और आक्रोश व्यक्त करने का एक मंच देता है जब उन्हें लगता है कि उनकी बात नहीं सुनी जा रही है. यह एक तरह से “अदृश्य” विरोध को “दृश्य” बनाता है.
  • मीडिया का ध्यान: पुतला दहन अक्सर मीडिया का ध्यान आकर्षित करता है. यह उन मुद्दों को सुर्खियों में लाता है जिन पर प्रदर्शनकारी ध्यान दिलाना चाहते हैं, जिससे सार्वजनिक बहस शुरू हो सकती है और सरकार पर कार्रवाई करने का दबाव बन सकता है.
  • सामूहिक एकजुटता: ऐसे प्रदर्शन लोगों को एक साथ लाते हैं जो समान विचारधारा साझा करते हैं. यह उनमें एकजुटता और अपने मुद्दे के लिए लड़ने की भावना पैदा करता है.
  • लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता: एक लोकतांत्रिक देश में, पुतला दहन जैसे विरोध प्रदर्शन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सा हैं. यह नागरिकों को अपनी सरकारों को जवाबदेह ठहराने का एक तरीका प्रदान करता है.
    नकारात्मक प्रभाव:
  • अनावश्यक व्यवधान: पुतला दहन अक्सर सड़कों पर होता है, जिससे ट्रैफिक जाम और अन्य व्यवधान होते हैं. इससे आम जनता को खासी परेशानी होती है, जो अपनी रोज़मर्रा की गतिविधियों में व्यस्त होते हैं. बच्चों को स्कूल जाने या नौकरीपेशा लोगों को अपने कार्यालय पहुँचने में देरी हो सकती है.
  • पर्यावरण प्रदूषण: पुतलों को बनाने में अक्सर प्लास्टिक, कपड़ा और अन्य ज्वलनशील सामग्री का उपयोग होता है. इनके जलने से निकलने वाला धुआं वायु प्रदूषण बढ़ाता है, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है.
  • हिंसा की संभावना: हालांकि पुतला दहन को अक्सर शांतिपूर्ण विरोध के रूप में देखा जाता है, कई बार यह अनियंत्रित हो सकता है और हिंसक झड़पों का रूप ले सकता है. इससे सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान हो सकता है और लोगों की जान को खतरा हो सकता है.
  • पुलिस पर अनावश्यक भार: जैसा कि पहले भी बताया गया है, पुलिस को ऐसे प्रदर्शनों के लिए अतिरिक्त बल तैनात करना पड़ता है, जिससे उन पर अनावश्यक दबाव पड़ता है. यह उनकी अन्य महत्वपूर्ण कर्तव्यों से ध्यान भटकाता है.
  • प्रतीकात्मकता का ह्रास: जब पुतला दहन बहुत अधिक होता है, तो इसकी प्रतीकात्मक शक्ति कम हो सकती है. लोग इसे केवल एक राजनीतिक नाटक के रूप में देखने लगते हैं, जिससे मुद्दे की गंभीरता कम हो जाती है.
    और आम आदमी? अरे भैया, आम आदमी तो इस पूरे ‘तमाशे’ में दर्शक भर रह जाता है. सड़कों पर जाम, पुतलों का धुआं और नेताओं के गर्मागर्म भाषण – बस यही है आम आदमी की ज़िंदगी का ‘मनोरंजन पैकेज’. कई बार तो लोग सोचते होंगे, “इससे अच्छा तो कोई कार्टून देख लें!”
    एक तरफ केंद्र सरकार राज्य सरकारों पर आरोप लगाती है, तो दूसरी तरफ राज्य सरकारें केंद्र पर. पुतले भी वही जलाते  हैं, जिनकी सरकार नहीं होती. ऐसा लगता है ।ये पुतला दहन का सिलसिला कब रुकेगा, ये तो भगवान ही जाने, लेकिन एक बात तय है – जब तक राजनीति है, पुतलों की कमी नहीं होगी!
    तो अगली बार जब आप किसी पुतला दहन को देखें, तो सिर्फ उसे विरोध प्रदर्शन के तौर पर न देखें, बल्कि उसे राजनीतिक ड्रामे का एक मज़ेदार अध्याय मानकर मुस्कुराएं! आखिर, ये सब भी तो हमारे लोकतंत्र का एक हिस्सा है, है ना?
फाइल फोटो
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